भारत और अमेरिका, जो पिछले एक दशक में रणनीतिक साझेदार के रूप में उभरे हैं, अब टैरिफ वॉर यानी शुल्क युद्ध के एक नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं। यह टकराव केवल व्यापार तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे भूराजनैतिक रणनीति, घरेलू राजनीतिक दबाव, और आर्थिक आत्मनिर्भरता की चाह भी छिपी हुई है।
टैरिफ वॉर की शुरुआत कैसे हुई?
टैरिफ वॉर की जड़ें 2019 में अमेरिका द्वारा भारत को ‘Generalized System of Preferences’ (GSP) से हटाए जाने से जुड़ी हैं। अमेरिका ने आरोप लगाया कि भारत पर्याप्त व्यापारिक लाभ नहीं दे रहा है। जवाब में भारत ने अमेरिकी उत्पादों — जैसे बादाम, अखरोट, और कुछ टेक्नोलॉजी प्रोडक्ट्स — पर टैरिफ बढ़ा दिया।
2025 में यह टकराव फिर उभर आया जब भारत ने चाइना+1 रणनीति के तहत आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए कुछ अमेरिकी इलेक्ट्रॉनिक्स और कृषि उत्पादों पर उच्च टैरिफ लगाया। अमेरिका ने बदले में फार्मा और स्टील उत्पादों पर शुल्क बढ़ा दिया।
रणनीतिक साझेदारी पर असर?
दोनों देश QUAD, Indo-Pacific रणनीति और रक्षा सहयोग में साथ हैं, लेकिन व्यापार विवाद इस समीकरण में खटास ला सकता है। अमेरिका चाहता है कि भारत अपने बाज़ार को अधिक खोलें, जबकि भारत घरेलू उद्योगों को संरक्षण देना चाहता है।
कौन क्या चाहता है?
भारत:
घरेलू MSMEs को बचाना
रोजगार सुरक्षित रखना
आत्मनिर्भर भारत को आगे बढ़ाना
अमेरिका:
अपने कृषि और टेक्नोलॉजी उत्पादों को भारतीय बाजार में पहुंच दिलाना
ट्रेड डेफिसिट को कम करना
आगे की राह:
दोनों देशों को समझना होगा कि टैरिफ वॉर कोई स्थायी समाधान नहीं है। द्विपक्षीय बातचीत, WTO के तहत समाधान, और फेयर ट्रेड एग्रीमेंट्स ही इस गतिरोध को समाप्त कर सकते हैं।
भारत को अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखते हुए वैश्विक व्यापार में संतुलन साधना होगा, जबकि अमेरिका को भी यह समझने की ज़रूरत है कि सहयोग दबाव से नहीं, साझेदारी से चलता है।
निष्कर्ष:
भारत-अमेरिका टैरिफ वॉर एक आर्थिक विवाद ज़रूर है, लेकिन इसका असर राजनयिक संबंधों और क्षेत्रीय स्थिरता पर भी पड़ सकता है। यह आवश्यक है कि दोनों देश टकराव की बजाय सहयोग को प्राथमिकता दें, क्योंकि आज का युग भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का नहीं, साझेदारी का है।
